Saturday, December 5, 2009

samantwad

फिर परिवारवाद पर चर्चा
sat, des 05,2009, 07:05:00 PM
चुनाव आते ही परिवारवाद की चर्चा शुरू हो जाती है। परिवार से परिवारवाद हो गया। जाति से जातिवाद हो गया। समाजवाद और साम्यवाद दर्शन हैं। लगता है परिवारवाद और जातिवाद भी दर्शन बन गए और अब समाजवाद दर्शन एक ओर रह गया परिवारवाद दर्शन को मानना शुरू हुआ है। कुछ राजनीतिक दल परिवारवाद पर ही चल रहे हैं। परिवारवाद दर्शन को मजबूत बनाने के लिए वे साठ साल से लगे हैं। चुनाव आते ही परिवारवाद राजनीति के शेयर मार्केट में छोड़ा जाता है और फिर टिकिट वितरण के समय परिवार के शेयर्स में उतार-चढ़ाव शुरू हो जाता है। राजनीति के कुछ परिवार चाहते हैं कि उनके परिवार के शेयर्स रिकार्ड ऊंचाई पर चढें। ऌसलिए अपने बेटे, बेटी, बहु, भतीजे-भतीजी, भाई को टिकिट दिलाने भिड़ जाते हैं और जिस राजनीतिक परिवार के दो सदस्य को टिकिट मिल गई वह राजनीति के शेयर मार्केट में प्रतिष्ठा पा जाता है। कुछ राजनीतिक परिवार तो परिवार के तीन-तीन सदस्य को टिकिट दिला देते हैं और वे ही सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव को तय करते हैं। कुछ राजनीतिक परिवार छोटी-छोटी कम्पनियों में इन्वेस्ट करते हैं जैसे बेटे को विधायक बनाया तो बहु को सरपंच। भतीजी को जिला पंचायत की अध्यक्ष तो भतीजे को सहकारी बैंक का अध्यक्ष बना दिया। खुद दिल्ली की राजनीति में गए तो बेटे को राज्य में खेलने-खाने छोड़ गए। इस तरह पूरे देश में कुछ परिवार अपने परिवार के शेयर्स इन्वेस्ट कर देते हैं जिसका राजनीतिक लाभ लगातार मिलता है। परिवारवादी दर्शन पर चलने का मतलब है देश की छोटी-बड़ी संस्था से लेकर दिल्ली के तख्त तक परिवार का कब्जा। परिवारवाद इस तरह लोकतंत्र में सत्ता हथियाने का राजनीतिक साम्राज्यवाद बन गया है। सामंती व्यवस्था में जिस तरह छोटी-बड़ी जमींदारियां थीं उसी तरह यहां लोकतंत्र में परिवारों की जमींदारियां बन गई है। लोकतंत्र में परिवारवाद का चरित्र सामंती ही होता है। फर्क इतना है कि तलवार के बल पर राज नहीं जीतते, वोट के बल पर सत्ता पाते हैं। दरअसल हमारे यहां राजनीति में परिवारवाद इसलिए कायम रहा और धीरे-धीरे बढ़ा क्योंकि यहां वंश पूजा की लंबी परम्परा रही है। और एक कारण यह भी कि यहां सामंतवाद के खिलाफ उस तरह का संघर्ष नहीं हुआ जिस तरह का पश्चिम में हुआ। इसलिए हमारे यहां सामंती मानसिकता न केवल कायम रही वरन् मजबूत होती गई। इस पर अलग से बात करने की जरूरत है। यहां बुर्जुआ व्यवस्था समय-समय पर सामंतवाद से समझौता करती है और सामंती व्यवस्था के साथ मिलकर काम करती है। इसीलिए यहां बुर्जुआ राजनीतिक दल और सरकारें सामंतवाद को बनाए रखने में अपना हित देखते हैं इसीलिए बुर्जुआ राजनीतिक दल परिवारवाद को प्रश्रय देते हैं जो सामंतवाद का सहोदर है। यह सत्ता में सामंतवाद और अर्थ में पूंजीवाद का ऐसा गठजोड़ बन गया है जिसे समझना आसान नहीं है। इसीलिए यहां समाजवाद आंदोलन भी बिखराव की त्रासदी सहता है। यहां सब शोध का विषय है।बात लोकतंत्र में चुनाव के समय परिवारवाद की हो रही है। अभी महाराष्ट्र के चुनाव में टिकिट वितरण की जो खबरें आती रहीं वे कतई चौंकाने वाली नहीं रहीं। किस परिवार को कितनी टिकिट दी गई, इसकी पूरी लिस्ट मीडिया में आ गई है। यह पहला अवसर तो है नहीं कि ऐसा हुआ है। हर चुनाव में ऐसा ही होता रहा है। यहां लिस्ट दोहराने का कोई अर्थ नहीं होगा। दरअसल देश आजाद हुआ तो आजादी के लिए लड़नेवालों को सम्मान में देश की बागडोर सौंप दी। उन्हें चुनाव जिताना उनका सम्मान करना था। धीरे-धीरे कुछ परिवारों ने लोकतंत्र में सत्ता की जागीर बना ली और परिवारवाद चल पड़ा। महाराष्ट्र चुनाव में टिकिट वितरण के समय इस पर खूब चर्चा हुई कि राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के पुत्र को भी टिकिट दी गई। कुछ ने विरोध किया। राष्ट्रपति के पुत्र को टिकिट देने का विरोध क्यों किया जाना चाहिए। जब मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, पंचों, सरपंचों के परिवार के व्यक्तियों को टिकिट दी जाती है तो राष्ट्रपति के पुत्र को क्यों नहीं दी जानी चाहिए। उनको टिकिट नहीं देने के लिए आधार क्या है। कांग्रेस ने राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभाताई पाटिल के पुत्र राजेन्द्र शेखावत को अमरावती विधानसभा क्षेत्र से टिकिट दी। टिकिट देने का आधार बताया कि राजेंद्र शेखावत कांग्रेस के सक्रिय तथा समर्पित कार्यकर्ता हैं। वैसे अमरावती क्षेत्र में समर्पित तथा सक्रिय कार्यकर्ता और भी होंगे, लेकिन राजेन्द्र कुमार शेखावत राष्ट्रपति के पुत्र हैं। यह उनके लिए अतिरिक्त अंक देने पर्याप्त है। अमरावती क्षेत्र के वर्तमान कांग्रेस विधायक तथा मंत्री सुनील देशमुख ने कहा था कि ''मुझे कांग्रेस नेतृत्व पर पूरा भरोसा है। सोनिया जी और राहुल जी मेरे साथ न्याय करेंगे।'' लेकिन न्याय का पलड़ा राष्ट्रपति के पुत्र की तरफ झुक गया। पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथ हो अथवा और किसी के, चुनाव में टिकिट देने समय पार्टी का शीर्ष नेतृत्व परिवारवाद को टिक करता रहा है। सामंती युग में राजपरिवार सत्ता के केंद्र में और उसके आस-पास होता था। अब राजनेताओं के परिवारों ने वह सम्मान ले लिया। राजनेताओं के परिवार से जो युवा बाहर हैं उनसे ''खूब मेहनत'' करने कहा जाता है। और ''खूब मेहनत'' का मतलब है नेताओं के आगे पीछे घूमो। उनकी सभाओं के लिए भीड़ लाओ। उनका जिंदाबाद बोलो। इस ''खूब मेहनत'' के बदले किसी को ठेका आदि का काम दे दिया जाता है और कहा जाता है कि पार्टी युवकों को आगे ला रही है।परिवारवाद कैसे खत्म हो, इस पर हम कोई सुझाव दे नहीं सकते क्योंकि जिन्हें ऐसा करना चाहिए वे निर्णय लेने के केंद्र में ताकत के साथ जमे हैं। अब तो राजनीति में परिवारवाद इतना जड़ जमा चुका है कि जो इसे उखाड़ना चाहेगा वह, और उसकी पार्टी ही संकट में पड़ जाएगी। राजनीति में परिवारवाद खत्म करने जो निकलेगा उसे गोल घुमाकर अंतिरिक्ष में फेंक दिया जाएगा कि जा पृथ्वी के चक्कर लगाते रह। इसलिए वर्तमान बुर्जुआ और सामंती गठजोड़ के चलते राजनीति में परिवारवाद खत्म नहीं हो सकता। ज्यादा से ज्यादा टिकिट अपने-अपने परिवार को दिलाने का नाम ही पार्टी सेवा बन गया है। कभी-कभी घबराहट होने लगती है कि कुछ ही परिवार सौ करोड़ पर राज कर रहे हैं और लोकतंत्र भी है। इसने इतना भ्रष्ट कर दिया है कि थोड़ा-थोड़ा पाने वाले तक मुंह बंद कर परिवारवाद की पालकी ढो रहे हैं। जो किसी एहसान से दबे हों वे क्या विरोध करें। इसलिए इस लोकतंत्र में ''तंत्र'' है ''लोक'' गायब है।